मंगलेश डबराल हिंदी के लोकप्रिय कवि है। जन संस्कृति मंच से उनका जुड़ाव गहरी संवेदना के साथ है। कविता के लिए साहित्य पुरस्कार भी उन्हें मिल चुका है। पुरस्कार वापस भी कर चुके है। लेकिन रायपुर में एक साहित्यिक कायर्क्रम में जब इनका परिचय साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवि के रूप में दिया गया, तो वो मंच पर मुस्करा रहे थे। दरसल मंगलेश डबराल का साहित्यिक मंच पर दिया गया वयान काफी सुर्ख़ियो में है । हाल ही में अभी उन्होंने लिखा है कि हिंदी कविता , कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे है, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है. हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं, उन्हें खूब लिखा जा रहा है। लेकिन हिंदी अब सिर्फ ” जय श्री राम और वंदे मातरम् तथा मुसलमान का ही स्थान- पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी चीजें में ही जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है। काश इस भाषा में न जन्मा होता।
उनकी इस टिप्पड़ी पर गौर किया जाना चाहिए। आख़िर क्यों उन्हें हिंदी साहित्य के प्रति ऐसी बात कह देना जरूरी लगा जबकि यह सच है समाज बदलता है तो साहित्य में बदलाव होना स्वाभाविक है लेखक ही समाज की असली आँखे होती है तब एक लेखक ही ऐसी टिप्पड़ी करे जिस भाषा से देश और समाज की पहचान बनती है। वही भाषा उसी समाज के लिए महत्वहीन साबित हो जाए तब शायद उसमे सुधार करने की स्थिति ही न बचे यह गंभीरता से सोचने का विषय है, तो वही दूसरी तरफ वाकी कवियों का कहना है कि मंगलेश डबराल शायद कुंठा के शिकार होने की वजह से ही ऐसी टिप्पड़ी की है, क्योकि काफ़ी समय से उन्होंने कुछ लिखा नहीं है इसीलिए वह भाषा और संवेदना को समझने में अवसाद के शिकार हो चुके है। लोगो ने उनकी इस टिप्पड़ी का विरोध किया है लोगो का कहना इस तरह की टिप्पड़ी करना ठीक नहीं है इसका समकालीन साहित्य से कोई सरोकार नहीं है उन्होंने अपनी कुंठा छुपाने के लिए नए लेखकों को अपमानित नहीं करना चाहिए। उन्हें अपने शब्द को वापस लेकर माफ़ी मांगनी चाहिए। प्रत्यक्ष रूप से भाषा के प्रति ऐसी टिप्पड़ी करना अशोभनीय है।
EDITOR BY- RISHU TOMAR
https://www.youtube.com/watch?v=SkjjrOD0GjE&feature=youtu.be