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उपन्यास ‘एक चीथड़ा सुख’

इन दिनों जबकि अपनी मेज़ को रोज़ अपने पास ना देख कर कहीं इन्हीं आस-पास की जगहों में खुद को व्यस्त करने में लगी हुई हूं। मुझे लगता है, इस तरह अनमने होकर कुछ भी नहीं हो पा रहा। दिन काटने के लिए अपने साथ लायी सारी ख्वाइसे हिम्मत बांध रही है। लगता है, कहीं कुछ है, जो यहां न होने के कारण मुझसे छूट नहीं रहा तो पकड़ में भी नहीं आ रहा। यह छूटना और पकड़ना न भी हो, तब भी वक़्त इस तरह मेरे इर्दगिर्द छितरा हुआ है कि वह असीम समुद्र की तरह मुझे चारों ओर से घेरे हुए है। उसमें तरंगे हैं, उफान हैं। सीपियां और मोती भी होंगे। पर लगता है इसमें नमक बहुत ज्यादा बढ़ गया है। इसे कैसे समझना चाहिए कंही से कुछ समझ नहीं आ रहा है।

इन्हीं सबके बीच पढ़ने और लिखने के इतने साल बीत जाने पर पहली बार निर्मल वर्मा उनका उपन्यास याद आ रहा है । एक चिथड़ा सुख दो बैठकों में इसे खत्म कर दिया। अभी भी मेरे मन में इसकी बहुत सी बातें चल रही है । उस बरसाती का एकांत मुझे बुला रहा होगा। उसमें बिट्टी और मुन्नू नहीं थोड़ा मैं भी रह गयी हूं। फ़िर भी मुझे लगता है, कहीं कुछ इससे बेहतर निर्मल वर्मा ने लिखा होगा। मुझे यह भी नहीं पता, कालक्रमानुसार इस उपन्यास को किसके बाद और किसके पहले लिखा गया है। उनकी डायरी ‘धुंध से उठती धुन’ अभी कहीं मिल नहीं पाई है। उसे भी पढ़ जाउंगी। फिर मेरे मन में दोबारा नित्ती भाई का ज़िक्र आने को होता है। पर आ नहीं पाता। इरा भी अपने चरित्र में नहीं खुलती। वह लड़की, जो डैरी की बहन है, उसमें बहुत कुछ है, जो छूट गया। सुख का चिंदी-चिंदी हो जाना। उन दोनों के मन में बौने का ज़िक्र बार-बार आना कहीं भी उसकी तलाश को दिखता है, पर वह कहीं दिख नहीं पाता। वह दिख क्यों नहीं रहा? समझ नहीं पाता। शायद उसे समझ आना ही नहीं है।


तब सहसा यह ख़याल मेरे मन में दस्तक देता है, वह कौन लोग हैं, जो इस लेखक की लिखी हुई पंक्तियों को अपने यहां जहाँ में उअतरने दे रहे है ? यह जो शहर की बनावट है, उसमें एक इलाहाबाद है, एक दिल्ली है। वह चले इलाहाबाद से होंगे और किसी दिल्ली में फंस गए होंगे। वही इसमें अपना अक्स खोजते होंगे। उन्हें अपने दुखों को दुख या सुख कहने से परहेज़ होगा। वह बिट्टी होंगे पर खुद को मानते नहीं होंगे। मुन्नू की तरह सब देखते हुए उसे अपने अंदर समेट रहे होंगे। मन में उतरते जाने और उस बरसाती में पड़े रहना रेकॉर्ड पर गाने सुनते रहना उस सुख को दिखलाता है। बहुत सारी बातें पन्नों से गुजरते हुए बेतरह मन में चलती रहीं। मुझे यह क्यों लगता रहा कि दिल्ली की सर्दियों में शिमला का चीड़ का पेड़ सेमर हो गया? यह जो लेखक का इसी तरह मन में फंसे रहना है, वही उसकी भाषा को वैसा बनाता होगा, जो हमारे मनोभावों को शब्द देता है। नहीं देता है।

यह पाठक के तौर पर मेरी सीमाएं हो सकती हैं, जिसे नहीं कहा गया, वह मुझे दिख नहीं पा रहा। दुख है। सुख नहीं है। दुख ओस की तरह है। सेमर के फूल की तरह है। लाल-लाल सुर्ख। पर उसकी वजहें नहीं है। उस छोटे लड़के का बुखार में तपते रहना, सब कुछ डायरी में लिखना, उसकी मां अतीत में मर जाना, सब है। पर कुछ है, जो इस चीथड़े से छिटक गया। कहा नहीं जा सका। यह जो बेवजह अपनी अपनी खोह में बैठे रहना है, यह भी एक किस्म का उत्सव है। जो यहां छितरा हुआ है। कौन होगा, जो इसे समेटना नहीं चाहेगा? यह सवाल इन पन्नों से गुजरता हुआ मेरे पास आया है।

लेखक की कलम से…


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