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हरियाणा के किसान बोले- पराली नहीं जलाने पर होता है सात हजार का खर्चा, सरकार करे मदद

दिल्ली एनसीआर में दम घोंटू माहौल खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। प्रदूषण की वजह से दिल्ली में स्वास्थ्य आपातकाल (हेल्थ इमरजेंसी) तक घोषित करनी पड़ी। पराली के धुएं व धूल के महीन कणों से दिल्ली-एनसीआर की हवा जहरीली हो गई है। सांस लेना भी दूभर हो गया है। पर्यावरण को नुकसान व आम लोगों को इससे होने वाली परेशानियों को लेकर अमर उजाला ने किसानों से बात की।

अंबाला के रहने वाले किसान परमजीत ने कहा, पराली को न जलाया जाए तो काफी नुकसान होता है। एक किल्ला तैयार करने पर पराली को दबाने में किसान का खर्चा छह से सात हजार रुपये हो जाता है। भले ही हमारी फसल बिक रही है, लेकिन किसान मजबूर है।

किसानों को पता है कि पराली जलाने से पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है। पराली का धुआं जानलेवा है। लेकिन वह मजबूरी में ही ऐसा करते हैं। यदि सरकार रोकथाम चाहती है तो सरकार इसके लिए हमें मशीनरी दे या कोई अन्य सुविधा दे।

अंबाला के ही दूसरे किसान राजकुमार ने कहा, पहले तो हर घर में गृहिणी चूल्हा जलाती थी। तब कोई बीमार नहीं हुआ करता था। उस समय तो सबसे ज्यादा धुआं होता था। पराली को दोष नहीं दिया जा सकता। प्रदूषण के अन्य कारण हैं। किसान मजबूरी में ऐसा काम करते हैं। ऐसा न करने पर 30 लीटर तेल खर्च करने के बाद भी खेत तैयार नहीं होता। हमारा तो ऐसा मन करता है कि फसल ही पैदा न करें।

अंबाला के अनिल ने कहा कि आग न लगाएं तो खेत तैयार करने में 6-7 हजार रुपये प्रति किल्ला खर्च आता है। आग न लगाएं तो खेत कैसे तैयार करें… यह कोई क्यों नहीं समझ रहा। भले ही फसल के पूरे पैसे मिल रहे, लेकिन सरकार किसानों को मशीनें मुहैया कराए।

रोहतक के रहने वाले किसान रुपराम ने कहा, सरकार सहारा नहीं दे रही है। किसान को रेट कम मिल रहे हैं। मजदूरी भी नहीं निकल रही। किसान तो बर्बादी के कगार पर है। ऐसे में वो मजबूरी में पराली जला देता है।

रोहतक के बोहर गांव के पंकज ने कहा, किसानों की मजबूरी है। सरकार उपकरण दे। किसान पराली जलाकर खुश नहीं है। मंडी में भाव कम है और बेचने में समय लग रहा है। इसलिए किसान पराली जला देता है। उसी गांव के सुरील ने कहा, सरकार उचित रेट पर धान ले और पराली खरीदे। फिर किसान पराली नहीं जलाएगा।

जींद के रहने वाले रामपाल ने कहा, भले ही कहीं पराली बिक रही हो लेकिन मजदूर भी नहीं मिल रहे हैं। पराली निकालने के लिए मजदूर तैयार नहीं होते और तैयार होते भी हैं तो छह हजार रुपये से कम में नहीं आते। ऐसे में तो किसान पराली को मजबूरी में जला देता है। यदि ऐसा नहीं करेगा तो खेत तैयार नहीं होगा और गेहूं की बिजाई नहीं हो पाएगी। सरकार हर गांव में एक मशीन उपलब्ध कराए और खरीद की व्यवस्था करे।

फतेहाबाद के इंद्राज ने कहा, किसान के पास साधन नहीं है। पराली दबाने का खर्चा बहुत अधिक आता है। बड़े किसान ही ऐसा कर सकते हैं। अबकी बार कोई बचत नहीं हुई है और भाव भी अच्छे नहीं मिल रहे। फुल्लां गांव के सतबीर ने कहा, खर्चा बहुत आता है। हां पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, लेकिन किसान परेशान और मजबूर है। सरकार छोटे किसानों को विकल्प उपलब्ध कराए।

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