सेंट्रल डेस्क प्राची जैन: सिनेमा की धाकड़ हीरोइन तापसी पन्नू फिल्मों के अलावा अपने बेबाक बयानों से भी चर्चा में रहती हैं। तापसी हाल ही में नेहा धूपिया के शो ‘नो फिल्टर नेहा’ में पहुंची थीं। यहां उन्होंने कई सवालों के खुलकर जवाब दिए। इस दौरान तापसी ने कहा कि फिल्म बदला में उन्होंने अमिताभ बच्चन से ज्यादा दिन काम किया था। लेकिन जब फिल्म रिलीज हुई तो कहा गया कि यह अमिताभ बच्चन की फिल्म है।
पिंकविला की खबर के मुताबिक, शो में नेहा धूपिया के एक सावल पर तापसी ने कहा, ‘फिल्म बदला में मेरे सीन अमिताभ बच्चन से कहीं ज्यादा थे। वो फिल्म के हीरो थे और मैं उनकी दुश्मन। फिल्म में मेरी भूमिका ज्यादा बड़ी थी लेकिन इसे अमिताभ बच्चन की फिल्म बताकर सारा क्रेडिट दिया उन्हें ही दे दिया गया।’
तापसी ने कहा, ‘जब मैं खुद कहती हूं कि मैंने हीरो के बराबर और उससे ज्यादा काम किया तब लोगों को मेरा काम समझ आता है। इसके बाद ही वो मेरा नाम लेना शुरू करते हैं। ये फिल्म इंडस्ट्री पुरुष प्रधान है।’
इसी शो में नेहा ने तापसी से पूछा कि ‘फीस के बीच जो असमानता देखी जाती है क्या उससे वो परेशान होती हैं?’ इस सवाल के जवाब में तापसी ने कहा- ‘बिल्कुल, मेरे हीरो के फीस की अपेक्षा मुझे पांच या 10 फीसदी ही मिलता है। ऐसे में निश्चित रूप से मैं परेशान होती हूं।
बॉक्स ऑफिस पर सफलता सुनिश्चित करेगी कि मुझे अगली फिल्म का भुगतान बढ़कर मिले, जो धीरे-धीरे उस अंतर को बराबर करने की दिशा की ओर बढ़ रही है। सिर्फ हमारी इंडस्ट्री में ही नहीं शायद हर दूसरी इंडस्ट्री में नियम काफी गलत हैं। अब हम यहां पर हैं तो हम इसे और ज्यादा देखते हैं। नियम हर जगह अलग हैं। लैंगिक समानता का पूरा मुद्दा यह है कि नियमों को समान बनाएं। मैं उनसे फीस बढ़ाने के लिए नहीं कह रही हूं, मैं समानता मांग रही हूं।’
तापसी ने कहा कि ‘उम्मीद है ‘फिल्म ‘सांड की आंख’ उस समानता की ओर एक कदम है। उदाहरण के लिए देखिए महिला प्रधान कोई फिल्म कभी दिवाली पर रिलीज नहीं होती है। मुझे नहीं पता कि यह आखिरी बार कब हुआ था। यह हमेशा बड़े अभिनेताओं के लिए आरक्षित था, टकराव दो अभिनेताओं के बीच हुआ था। जब हम एक कैलेंडर देखते हैं और हम एक महिला प्रधान फिल्म के लिए रिलीज की तारीख तय करते हैं, तो हमें बचे हुए लोगों के साथ समझौता करना होता है।’
तापसी बताती हैं कि ‘मैंने ऐसी कई फिल्में की हैं जब हम रिलीज की तारीख तय करने के लिए बैठते हैं तो यह होता है कि ‘अच्छा ये दिन के बाद, यह हफ्ता खाली पड़ा है। यहां रिलीज कर लेते हैं।’ वास्तव में ऐसा ही होता है, जो निराशाजनक है क्योंकि हम भी उतनी ही कोशिश करते हैं। अगर हमारी कहानियां भी अच्छी हैं तो हमें समान अवसर क्यों नहीं मिलता है? सिर्फ इसलिए कि यह एक महिला प्रधान फिल्म है? क्या आपके लिए एक बड़ी तारीख पर फिल्म नहीं रिलीज करने की सही वजह है?’
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