अर्जुन सशरीर इन्द्र-सभा में गया तो उसके स्वागत में उर्वशी, रंभा आदि अप्सराओं ने नृत्य किए। अर्जुन के रूप सौंदर्य पर मोहित हो उर्वशी उसके निवास स्थान पर गई और प्रणय निवेदन किया, साथ ही ‘इसमें कोई दोष नहीं लगता’ इसके पक्ष में अनेक दलीलें भी दीं, किंतु अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रिय-संयम का परिचय देते हुए कहा-
यथा कुन्ती च माद्री च शची चैव ममानघै।
तथा च वंशजननी त्वं हि मेऽद्य गरीयसी।।
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि।
त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया।
उर्वशी अपने कामुक प्रदर्शन और तर्क देकर अपनी काम-वासना तृप्त करने में असफल रही तो क्रोधित होकर उसने अर्जुन को 1 वर्ष तक नपुंसक होने का शाप दे दिया। अर्जुन ने उर्वशी से शापित होना स्वीकार किया, परंतु संयम नहीं तोड़ा।
जब यह बात उनके पिता इन्द्र को पता चली तो उन्होंने अर्जुन से कहा, ‘हे पुत्र! तुमने तो अपने इन्द्रिय संयम द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया। तुम जैसे पुत्र को पाकर कुंती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्र वाली है। उर्वशी का शाप तुम्हें वरदान रूप सिद्ध होगा। भूतल पर वनवास के 13वें वर्ष में तुम्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा, उस समय यह सहायक होगा। उसके बाद तुम अपना पुरुषत्व फिर से प्राप्त कर लोगे।’
इस शाप के चलते अज्ञातवास के समय अर्जुन ने विराट के महल में नर्तक वेश में रहकर विराट की राजकुमारी को संगीत और नृत्य विद्या सिखाई थी, तत्पश्चात वे शापमुक्त हो गए थे।