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कभी ‘शारदा प्रदेश’ के नाम से भी विख्यात था ‘कश्मीर’,आज भी यहीं बसती हैं मां सरस्वती

-Sahul pandey

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
अर्थ:— विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।

उपर के श्लोक से यह स्पष्ट है कि विद्या से ही किसी भी व्यक्ति को ख्याति मिलती है.हमारे देश भारत की प्रचाीन शिक्षा और दर्शनों में भी विद्या को ही सबसे श्रेष्ठ धन माना गया है. वहीं इस देश में विद्या देने वाली देवी के रुप में मां शारदे यानी की मां सरस्वती की पूजा होती है. भारतीय वेदों में विद्या की देवी सरस्वती को श्रेष्ठ बताया गया है वहीं वेदों की माने तो सरस्वती नदी के तट पर ही इन वेदों को लिखा गया, यहीं कारण है कि विद्या की देवी के रुप में मां सरस्वती की पूजा होती है. सरस्वती को समर्पित कई सारे मंदिर और पीठ भारतवर्ष में आज भी उपस्थित हैं. लेकिन हम आज आपको एक ऐसे पीठ के बारे में बताने जा रहे हैं जो इन सभी में श्रेष्ठ है लेकिन आज पूरा भारत वर्ष शायद इस विद्यापीठ को भूल चुका है.

हम बात कश्मीर की कर रहे हैं. भारत अधिकृत कश्मीर की नहीं पाकिस्तान वाले कश्मीर की. मां शारदे का यह मंदिर पाकिस्तान वाले कश्मीर में है. हालांकि आज इस मंदिर के केवल अवशेष ही बचे हैं. आपको बता दें कि भारतीय इतिहास और ग्रंथो में भी काश्मीर का बड़ा महत्व है. ऐसा माना जाता है कि बनारास के बाद भी अगर कही उच्च शिक्षा की प्राप्ति हो सकती है तो वो प्रदेश काश्मीर है. किसी काल में काश्मीर स्थित मां सरस्वती के इस मंदिर में आदि गुरु शंकराचार्य ने अपना आसन जमाया था ओर इसके दक्षिणी द्वार को खोला था. बताया जाता है कि देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित करने तथा आचार्य गौड़पाद में महाविष्णु के दर्शन करने के पश्चात आदि शंकर को माँ सरस्वती की कृपा प्राप्त हुई थी.

जब मां सरस्वती ने ली थी शंकराचार्य की परीक्षा

विद्यारण्य द्वारा रचित काव्य ‘शंकर दिग्विजय’ में शंकराचार्य के इस मंदिर में आने को लेकर कथा को जिक्र किया गया है. इस कथा के अनुसार शंकर अपने शिष्यों के साथ गंगा किनारे बैठे थे, उस्सी समय किसी ने उन्हें बताया कि विश्व में जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप में भारत और भारत में काश्मीर प्रदेश सबसे प्रसिद्ध स्थान है. यहीं पर मां शारदे का निवास स्थान है. कथा के अनुसार कश्मीर स्थित इस मंदिर के चार द्वार थे. जो चारो दिसााओं की ओर खुलते थे. मंदिर के भीतर ‘सर्वज्ञ पीठ’ है. उस पीठ पर वही आसीन हो सकता है जो ‘सर्वज्ञ’ अर्थात सबसे बड़ा ज्ञानी हो।

उस समय माँ शारदा के उस मंदिर के चार द्वारों में से केवल तीन हीं द्वार खुले थे. पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा से आए विद्वानों के लिए ये तीन द्वार खुल चुके थे, लेकिन दक्षिण की ओर से कोई विद्वान नहीं आया था इसी कारण मंदिर का चौथा द्वार नहीं खुला था. आदि शंकर ने जब यह सुना तो वे शारदा मंदिर के सर्वज्ञ पीठ के दक्षिणी द्वार के लिए निकल पड़े।

शंकर जब कश्मीर पहुंचे तब वहां उन्हें अनेक विद्वानों ने घेर लिया। उन विद्वानों में न्याय दर्शन, सांख्य दर्शन, बौद्ध एवं जैनी मतावलंबी समेत कई विषयों के ज्ञाता थे। शंकर ने सभी को अपनी तर्कशक्ति और मेधा से परास्त किया. जिसके बाद मंदिर का दक्षिणी द्वार खुला और आदि शंकर पद्मपाद का हाथ पकड़े हुए सर्वज्ञ पीठ की ओर बढ़ चले। कहा जाता है कि इस दौरान स्वयं मा शारदे ने शंकर की परीक्षा ली थी. मा सरस्वती ने शंकर को यह कह कर मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया था कि वे अपवित्र हैं और एक सन्यासी होकर भी काम विद्या सीखने के लिए उन्होने किसी स्त्री संग संभोग किया है.

तब शंकर से कहा, “माँ मैंने जन्म से लेकर आजतक इस शरीर द्वारा कोई पाप नहीं किया। दूसरे शरीर द्वारा किए गए कर्मों का प्रभाव मेरे इस शरीर नहीं पड़ता।” यह सुनकर माँ शारदा शांत हो गईं और आदि शंकर सर्वज्ञ पीठ पर विराजमान हुए। माँ सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त कर शंकर की कीर्ति चहुँओर फैली और वे शंकराचार्य कहलाए। इसी के बाद शंकराचार्य ने माँ सरस्वती की वंदना में स्तुति की रचना की जिसे हर कोई सरस्वती वंदना के रुप में भी जानता है. उन्होंने लिखा — “नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुर वासिनी, त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे।”

कहां है शारदा पीठ

मुज़फ्फ़राबाद झेलम और किशनगंगा नदियों के संगम पर बसा छोटा सा नगर है। किशनगंगा के तट पर ही शारदा तहसील में शारदा गाँव स्थित है। वहाँ आज शारदा विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई पड़ते हैं। किसी जमाने में यह पीठ पुरे एशिया में विद्या का केन्द्र माना जाता था. कनिष्क के राज में यह समूचे सेंट्रल एशिया का सबसे बड़ा ज्ञान का केंद्र था। कश्मीर को कभी ‘शारदा प्रदेश’ के नाम से भी जाना जाता था.

बात अगर भारतीय पुराणों की करें मो शारदा पीठ का उल्लेख सर्वप्रथम नीलमत पुराण में आता है. इसके अतिरिक्त कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि सम्राट ललितादित्य के समय में शारदा विश्वविद्यालय में बंगाल के गौड़ समुदाय के लोग शारदा पीठ आते थे। राजनरंगिनी के अनुसारद शारदा विश्वविद्यालय में किसी समय 14 विषयों की पढ़ाई होती थी। यहीं पर शारदा लिपि का भी जन्म हुआ था।

कब बना था शारदा पीठ:—

शारदा पीठ के बनने को लेकर कई अलग— अलग विचार है. शाराद पीठ जो की शक्ति पीठों में से भी एक है को लेकर कई इतिहासकारो की अलग—अलग राय है. कोई इसे कुशानो के काल यानी 30 CE-230 CE के काल का मानता है तो कोई यह मानता है कि इसका निमार्ण ललितादित्य के राज में हुआ था. वहीं एक मत यह भी है की इस पीठ का निर्माण कई कालों में हुआ. यह करीब 5000 साल पुराना है. वहीं कुछ लोग यह मानते हैं कि इंडो—अफगान मूल के लोगों ने इस पीठ का निमार्ण कराया होगा.
काश्मीरी पंडितों के लिए यह स्थान अमरनाथ, मारतंड सूर्य मंदिर के बाद तीसरे तीर्थ के रुप में था.

 

जब चली गई कश्मीर के लोगों की आवाज

डॉ अयाज़ रसूल नाज़की उन लोगों में से हैं जिन्होंने पाकिस्तान अधिकृत काश्मीर में स्थित शारदा पीठ की यात्रा कि थी. उन्हानें में Cultural Heritage of Kashmiri Pandits नामक पुस्तक में अपने एक लेख में इस स्थान को लेकर ‘सारिका’ या ‘शारदा’ की लोक प्रचलित कहानी का जिक्र किया है.

उन्होंने लिखा है कि ‘एक बार कश्मीर में रहने वालों की आवाज चली गई। आलम यह हो गया कि इस प्रदेश के सभी लोगों की आवाज एक साथ चले जाने से सभी लोग गूंगे हो गए. कोई न कुछ बोल सकता था न व्यक्त कर सकता था। आवाज़ चले जाने से लोग दुखी और परेशान हो गए. तब सबने मिलकर हरि पर्वत पहाड़ी पर जाने का निश्चय किया। वहाँ पहुँच कर सबने भगवान से प्रार्थना की।

तभी एक बड़ी सी मैना आई और उस चिड़िया ने अपनी चोंच से पत्थरों पर खोए हुए अक्षरों को लिखना प्रारंभ किया। सबने मिलकर उन अक्षरों को बोलकर पढ़ा, और इस प्रकार सबकी वाणी लौट आई। संभव है कि वाग्देवी सरस्वती ने कश्मीरी लिपि शारदा को इसी प्रकार प्रकट किया हो लेकिन शेष भारत ने शारदा देश, लिपि, आदि शंकर की सर्वज्ञ पीठ और देवी की शक्ति पीठ को भी लगभग भुला दिया है।

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