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उत्तराखंड में कमजोर होता “लाल क़िला”

बता दे की उत्तरप्रदेश के जमाने में पहाड़ी इलाकों में वामपंथी दलों की नींव तो मजबूत थी। लेकिन देवभूमि उत्तराखंड बनने के बाद इन दलों ने अपनी सियासी जमीन खो दी। 21 सालों के इतिहास में वामपंथी पार्टियां न तो कोई ‘लाल किला’ बना पाई न जीत का स्वाद चख सकी। विधानसभा चुनाव में हालात यह रहे कि उन्हें 70 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार तक नहीं मिल सके। वह एक अदद जीत को तरस गईं।

बताया जा रहा है की सिहासी जानकारों का मानना है कि राज्य गठन से पहले ही आंदोलन और संघर्ष का पर्याय माने जाने वाले देवभूमि उत्तराखंड को वामपंथी दलों के लिए उर्वरा माना जाता था। आज हालात यह है कि वामपंथी दल अपना अस्तित्व बचाने की जंग लड़ रहे हैं। कई क्षेत्रीय दल उनसे काफी आगे हैं। भाजपा और कांग्रेस सरीखे बड़े दलों की आभामंडल में वामपंथी दल खो गए हैं। अभी तक चुनाव में उनकी भूमिका वोटों के समीकरणों को प्रभावित करने तक सीमित रही है।

देवभूमि उत्तराखंड राज्य गठन के बाद अब तक हुए चार विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों का बहुत बुरा हश्र हुआ है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने हर विधानसभा चुनाव में अलग-अलग प्रत्याशी उतारे। तीनों दलों की सियासी जमीन इस कदर कमजोर हो गई कि वे 70 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं कर सकीं।

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देवभूमि उत्तराखंड गठन के बाद हुए चार विधानसभा चुनावों में तीन वामपंथी पार्टियों भाकपा, माकपा और भाकपा का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। वे राज्य में एक अदद सीट के लिए तरस गए। वर्ष 2002 में वामपंथी दलों ने 14 उम्मीदवार मैदान में उतारे। इन्हें एक फीसदी वोट ही मिले। 2007 विधानसभा चुनाव में 16 उम्मीदवार उतारे। वोट प्रतिशत घटकर 0.59 फीसदी रह गया। 2012 में वामपंथी प्रत्याशियों की संख्या 16 थी, जिन्हें महज 0.58 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए। 2017 में वाम पंथी प्रत्याशियों की संख्या केवल 12 थी और इनका प्रदर्शन एक प्रतिशत वोटों पर सिमट गया।

बताया जा रहा है की इस बार पिछले चार चुनावों के निराशाजनक प्रदर्शन से सबक लेते हुए तीनों वामपंथी दलों ने मिलकर चुनाव लड़ने का इरादा जाहिर किया। तीनों दलों के नेताओं ने इसकी रणनीति भी बनाई है। लेकिन जानकारों का मानना है कि जमीन पर सांगठनिक नेटवर्क और कार्यकर्ताओं की फौज के बिना गठबंधन के जरिये करिश्मे की उम्मीद बेमानी है। सत्ता पर काबिज भाजपा के सांगठनिक ढांचे के आगे मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी नहीं ठहरती तो वामपंथी दलों की क्या बिसात है, जो अपनी रही-सही सियासी जमीन भी गंवा चुके हैं।

बता दे की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी एक मोर्चा लोकसभा चुनाव के दौरान भी बनाया था। पौड़ी और टिहरी के दो लोकसभा क्षेत्र से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी पौड़ी, अल्मोड़ा और नैनीताल लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में थी। तीन-तीन वामपंथी दल होने के बावजूद इन सभी को उत्तराखंड में केवल 26,363 वोट ही मिल पाए।

बताया जा रहा है की एक दौर था जब टिहरी के एक बड़े हिस्से को वामपंथ के लालदुर्ग के तौर पर देखा जाता था। वहां भाकपा का प्रभाव था। उत्तराखंड में वामपंथी दलों के प्रभाव के लिए टिहरी एक बड़ी नजीर है। उत्तरप्रदेश के समय में चिपको आंदोलन को वैचारिक धार देने वाले भाकपा के गोविंद सिंह नेगी टिहरी विधासनभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे। 80 के दशक में भाकपा नेता व हिंदी के विख्यात कथाकार विद्यासागर नौटियाल देवप्रयाग से विधायक चुने गए। संघर्ष के जरिये जनाधार बनाने वाले इन वामपंथी नेताओं की टिहरी रियासत की निरंकुश राजशाही के खात्मे में बड़ा योगदान रहा है। संघर्ष के ताप से वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, शहीद नागेंद्र सकलानी, मोलू भरदारी, गोविंद सिंह नेगी जैसे जन नेताओं ने जनसंघर्षों का नेतृत्व किया।

हिस्टोरि गवाह है कि वामपंथी दलों ने संघर्षों के दम पर ही अपना आधार बनाया। जहां उन्होंने जनता के संघर्षों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और बलिदान दिया, वहां लोगों में उनके प्रति विश्वास बना। टिहरी इसकी सबसे बड़ी नजीर है जहां निरंकुश राजशाही के खात्मे के लिए नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी जैसे युवा कम्युनिस्ट शहीद हो गए।

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