एक बार वेदव्यास ने धृतराष्ट्र से मिलकर कहा कि महर्षि मैत्रेय यहां आ रहे हैं। वे पाण्डवों से मिलकर अब आप लोगों से मिलना चाहते हैं। वे ही तुम्हारे पुत्र को पांडवों से मेल-मिलाप का उपदेश देंगे। इस बात की सूचना मैं दे देता हूं कि वे जो कुछ भी कहे, बिना तर्क-वितर्क के मान लेना। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मैत्रेय की आज्ञा का उल्लंघन हुआ तो वे क्रोध में आकर शाप भी दे सकते हैं इसलिए शांतिपूर्वक उनकी बातें सुन लेना। अमल करना या नहीं करना, यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है। इतना कहकर वेदव्यास जी चले गए।
धृतराष्ट्र महर्षि मैत्रेय के आते ही अपने पुत्रों सहित उनकी सेवा व सत्कार करने लगे। विश्राम के बाद धृतराष्ट्र ने बड़ी विनय के साथ पूछा- “भगवन् आपकी यहां तक की यात्रा कैसी रही? पांचों पांडव कुशलपूर्वक तो हैं।” तब मैत्रेयजी ने कहा कि “राजन, तीर्थयात्रा करते हुए वहां संयोगवश काम्यक वन में युधिष्ठिर से मेरी भेंट हो गई। वे आजकल तपोवन में रहते हैं। उनके दर्शन के लिए वहां बहुत से ऋषि-मुनि आते हैं। मैंने वहीं यह सुना कि तुम्हारे पुत्रों ने पाण्डवों को जुए में धोखे से हराकर वन भेज दिया। वहां से मैं तुम्हारे पास आया हूं।”
उन्होंने धृतराष्ट्र से इतना कहकर पीछे मुड़ते हुए दुर्योधन से कहा, तुम जानते हो पाण्डव कितने वीर और शक्तिशाली हैं। तुम्हें उनकी शक्ति का अंदाजा नहीं है शायद इसलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो इसलिए तुम्हें उनके साथ मेल कर लेना चाहिए मेरी बात मान लो। गुस्से में ऐसा अनर्थ मत करो।
महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर दुर्योधन को क्रोध आ गया और वह व्यंग्यपूर्ण मुस्कुराते हए पैर से जमीन कुरेदने लगा और हद तो तब हो गई, जब उसने अपनी जांघ पर हाथ से ताल ठोंक दी। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर महर्षि को क्रोध आया। तब उन्होंने दुर्योधन को शाप दिया।
बाद में कौरव और पांडवों का घोर युद्ध हुआ और भीम ने दुर्योधन की जंघा पर वार कर अंत में उसकी जंघा उखाड़ फेंकी।